गत 25 मार्च को अमरीकी इतिहासकार जॉन होप फ्रैंकलिन का 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. अमेरिकी इतिहास में अश्वेतों को उनका उचित स्थान दिलाने में फ्रैंकलिन का महती योगदान है. नस्लवादी पूर्वाग्रह से ग्रस्त अमेरिका के दक्षिणी राज्य ओक्लाहोमा में पैदा हुए फ्रैंकलिन ने अश्वेतों के प्रति होने वाले भेद-भाव और दुर्व्यवहार को स्वयं अनुभव किया था. ऐसा ही एक कटु अनुभव उस समय का है जब बचपन में उन्होंने एक नेत्रहीन महिला को सड़क पार करने में मदद करने की कोशिश की. जब उन्होंने यह बताया कि वे अश्वेत हैं तो उस महिला ने घृणा से उनका हाथ झटक दिया.
अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में वह
जिम क्रो कानूनों का दौर था. जिम क्रो कानूनों के अनुसार सरकारी स्कूलों, सार्वजनिक शौचालयों, बसों, ट्रेनों, रेस्तराँ और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर श्वेत और अश्वेत लोगों के लिए अलग व्यवस्था थी. ये कानून कहने को तो अश्वेतों को 'पृथक मगर बराबर' (सेपरेट बट ईक्वल) दर्जा देते थे मगर मूलतः ये नस्लवादी मानसिकता का प्रतीक थे.
'ब्राउन विरुद्ध बोर्ड ऑफ़ एजूकेशन' केस को बीसवीं सदी के अमेरिकी इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1954 में दिए गए इस केस के फैसले में श्वेत और अश्वेत बच्चों के लिए अलग स्कूल व्यवस्था को गैर-बराबरी पर आधारित घोषित कर समाप्त किया गया. इस ऐतिहासिक फैसले ने नागरी अधिकार आन्दोलन के लिए ज़मीन तैयार की. इस मुक़दमे के लिए अश्वेत समुदाय की ओर से युक्तिवाद और तर्क सामग्री तैयार करने में फ्रैंकलिन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही.
1947 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'फ्रॉम स्लेवरी टू फ्रीडम' आज भी अमेरिका में अश्वेत समुदाय के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ मानी जाती है. 1995 में उन्हें अमेरिका के सर्वोच्च नागरी अलंकरण 'प्रेसिडेंट्स मेडल ऑफ़ फ्रीडम' से सम्मानित किया गया.
चित्र: नेशनल आर्काइव्ज़ एंड रिकार्ड्स एडमिनिस्ट्रेशन (यू एस ए) से साभार.